रिश्तों की कहानी, हस्तक्षेप | Husband Wife Relationship Story, Riston Par Kahani Hindi

Relationship Story In Hindi,
]riston pa kahani hindi mein

 हस्तक्षेप –  Hindi Story on Relationships , Best Hindi Story

" मम्मी वहाँ तो प्रेशरकुकर भी खराब है – कई बार रिंग निकाल कर सेट करो – तब जा कर भाँप निकलना बंद होता है।"

" अच्छा !

–और हाँ, सीटी तो बजता ही नहीं ।"– मटर छीलते हुए सुरेखा ने अपनी माँ से शिकायत की।

 तू पहली बार ससुराल से मायके आयी है – चलो शाम को एक नया – तुम्हारी पसन्द का – प्रेशरकुकर दिलवा देती हूँ ।"  – माँ स्नेहलता स्नेह से बोली।

सुरेखा खुश हो गयी।

शाम हुई – माँ और छोटी बहन के साथ सुरेखा बाज़ार गयी और अपनी पसंद से खुद के कपड़े – पति के लिये शर्ट-पेंट के कपड़े और एक अच्छे ब्रांड का प्रेशरकुकर खरीद लायी।

सुरेखा के पिता घनश्याम जी महूँ रेलवे स्टेशन पर तृतीय श्रेणी के कर्मचारी थे – उसका विवाह महूँ से लगभग साठ किलोमीटर दूर सनावद नगर में हुआ था।

यातायात का साधन सुगम था।

रेलवे के अलावा सड़क मार्ग से भी दोनों नगर जुड़ें हुए थे।

सुरेखा का पति अरविंद सनावद में ही एक सूत मिल में काम करता था। 

ससुर किसी को-ऑपरेटिव बैंक से रिटायर हो चुकें थे।

दोनों परिवार मध्यमवर्गीय था – धन की प्रचुरता नहीं थी पर घर में अभाव भी नहीं था।

सुरेखा के ताऊ सनावद स्टेशन पर कार्यरत थे – उन्हीं के प्रयासों के कारण रिश्तें की बात चली थी और विवाह सम्पन्न हुआ था।

अगले दिन सुरेखा पति के साथ ससुराल लौटीं ।

दिल बल्लियों उछल रहा था – माँ से मिले उपहार उसे गोरवांकित कर रहें थे।

सास प्रेशरकुकर के डब्बे को देख कर पूछ बैठी – " ये क्यों खरीद लायी ?"

" हमनें खरीदा नहीं मम्मी जी – मेरी मम्मी ने दिया है ।"– कहते समय सुरेखा के स्वर में गर्व का भाव था।

अनुभवी सास जैसे माज़रा समझ गयी हो – बोली – " इसे अभी निकालना नहीं – अरविंद से कह कर कुकर सुधरवा दूँगी – अगर फिर भी कुकर से सन्तुष्टि नहीं मिले – तभी नया कुकर निकालना।"

उसी शाम प्रेशरकुकर को एक बर्तन दुकान पर भेज कर सुधरवा लिया गया।

अब पुराने कुकर से प्रेशर लीक नहीं कर रहा था और वह यदा-कदा सीटी भी बजा रहा था।

तीन महीनें बाद – सुरेखा पति के साथ फिर मायके आयी – मम्मी ने हाल-चाल पूछा – बातों ही बातों में माँ ने पूछ लिया कि – " किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बताना ।

 और सब तो ठीक है मम्मी पर वहाँ का गैस चूल्हा इतना कम फ्लेम देता है कि चाय बनाने में ही पसीना छूट जाता है – उसे सुधरवा कर भी देखा पर कोई फायदा नहीं – आठ -दस दिन तक फ्लेम ठीक रहता है फिर वैसा का वैसा ही – मम्मी, मिलिट्री केंटीन से चूल्हा मिल सकता हो तो दिलवाओ न – केंटीन में सस्ता मिल जाता है।

घनश्याम जी के एक मित्र – जो सेना में एक अच्छें पद पर कार्यरत थे – से निवेदन कर घनश्याम जी ने – एक गैस स्टोव सुरेखा के लिये मंगवा दिया।

सुरेखा ने मूल्य चुकाना चाहा पर घनश्याम जी ने मूल्य लेने से मना कर दिया।

समझना पापा की तरफ से गिफ्ट है ।"– कह कर उन्होंने टाल दिया।

इस बार फिर सुरेखा गर्व से मस्तक ऊँचा कर ससुराल पहुँची।

सास ने दरवाज़ा खोला था – सास की नजर गैस स्टोव पर पड़ी तो सास के पूछने से पहले ही सुरेखा बोल पड़ी –" मम्मी जी, अपने चूल्हें से परेशान हो गयी हूँ – इसलियें महूँ के मिलिट्री केंटीन से – मम्मी से कह कर – चूल्हा मंगवायी हूँ – मैं पैसे दे रही थी पर पापा ने देने नहीं दिया।"

इस बार सास कुछ नहीं बोली।

शाम को काम से लौटने के बाद खुद अरविंद ने नया स्टोव  किचन में लगाया – उस शाम का खाना – नये स्टोव पर बनाया गया – साथ ही आज नया प्रेशरकुकर –जो टांड पर रखा था– उतारा गया – फिर नए प्रेशरकुकर का उद्घाटन नये गेस स्टोव पर – खीर बना कर किया गया।

बाद के दिनों में स्थिति ये थी कि सुरेखा जब कभी मायके जाती थी – अपनी माँ के सामने शिकायतों का पिटारा खोल कर रख देती थी – जरा-जरा सी कमियां भी बढ़ा-चढ़ा कर बताती थी – माँ भी उन कमियों को रस ले-ले कर सुनती थी – चूंकि वे सब चीजें घरेलू उपयोग से सम्बंधित होती थी – ज्यादा महंगी भी नहीं होती थी – इसलियें माँ खुद बाज़ार से ला देती थी या पिता से मंगवा देती थी।

कैंची – मिक्सर ग्राइंडर – डिनर सेट – जैसे कई चीजें वह माँ से सनावद ले कर आयी।

अब सास भी कुछ नहीं कहती थी – उन्हें भी लगता था कि कुछ ला ही रही है – देने तो जा नहीं रही। सम्पन्न माँ-बाप की बेटी है – माँऐ बेटियों को उपहार देती ही है।

उन्हीं दिनों अरविंद को एक सेकेंड-हैंड बाइक पसन्द आ गयी। कीमत लगभग चालीस हजार रुपये तय ठहराया गया।

अरविंद के पास मात्र बीस हज़ार रुपये थे – कुछ पापा से – कुछ दोस्तों से लेकर खरीद लूंगा – सोच कर अरविंद ने बाइक के लिये दस हज़ार रुपये बयाना दे दिया और सात दिन के अंदर पूरी रकम देकर बाइक ले जाऊँगा का – वादा कर आया।

घर आया तो पता चला कि पिता अधिकतम आठ हज़ार रुपये की मदद कर सकते है – शेष बारह हजार के लिये वह इधर-उधर भटका – मित्रों से फरियाद किया पर कहीं दाल नहीं गली।

अंतिम विकल्प के तौर पर वह दानवीर ससुर को याद किया – अगले ही दिन नवदम्पत्ति महूँ पहुँच गये।

घनश्याम जी के सामने आने का प्रयोजन बताया गया तो अरविंद और सुरेखा – दोनों का भ्रम टूटा।

घनश्याम जी ने पैसे जुटा पाने में असमर्थता प्रकट की, बोले – " हज़ार – दो हजार की व्यवस्था तो कर सकता हूँ पर बारह हजार की व्यवस्था मेरे लिये मुश्किल होगी।

सुरेखा का दिल उदास हो गया – वहीं अरविंद को बयाने में दिये दस हज़ार रुपये डूबते हुए नज़र आयें।

बेटी-दामाद आये थे इसलियें उत्तम भोग का प्रबंध किया जाने लगा – पर अरविंद का मन ससुराल में नहीं लगा – " इंदौर से होकर लौटता हूँ ।"– कह कर वह वहाँ से निकल गया।

महूँ – इंदौर में लगभग पच्चीस किलोमीटर की दूरी थी – " जल्दी लौटना ।" – कह कर सुरेखा ने उसे जाने दिया।

दोपहर हो गयी – फिर शाम ढल गयी – पर अरविन्द इंदौर से वापस नहीं लौटा था – जबकि, पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक उसी शाम उन्हें सनावद लौटना था – सुरेखा बार-बार घड़ी देखती – उसका मन विचलित होने लगा था – मन में तरह-तरह के ख्याल उमड़ रहें थे। 

कोई अनहोनी न हो गयी हो – सोच कर उसकी आँखों से आँसू निकल पड़े। 

बेटी के आगमन से माँ का उल्लासित मन अब मलिन होने लगा था – दीमाग में एक ही बात आयी कि पैसे के कारण जमाई राजा नाराज़ तो नहीं हो गया है !

बेटी को लेकर एक PCO में पहुँची और अरविन्द के पड़ोस के एक घर में जहाँ P&T टेलीफोन कनेक्शन लगा था – फोन लगाया गया।

फोन सुनने अरविंद ही आया था।

फोन पर अरविंद की आवाज़ सुनकर सुरेखा फफक पड़ी – मैं यहाँ आपकी प्रतिक्षा कर रही हूँ और आप सनावद पहुँच गये !"– सुरेखा बड़ी मुश्किल से बोल पायी।

" क्या करता महूँ में रुक कर ? इंदौर दोस्त के पास गया था पैसे की जुगाड़ में – वहाँ भी इंकार सुना तो सनावद लौट आया – बाइक वाले से बयाना लौटाने को बोलूँगा – अगर लौटा दिया तो ठीक है नहीं तो दस हज़ार रुपये को राम - राम ।"

" मैं कैसे आऊँ ? "

" मर्ज़ी तेरी – जैसे आना हो आना – न मर्जी हो तो मत आना ।"– अरविन्द का रुष्ठ स्वर।

बिजली सी गिरी सुरेखा के ऊपर – कई पलों तक अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ –" य- ये-- क्या बोल रहे हो !"

" वही जो सुन रही हो ।" – कह कर अरविंद ने फोन रख दिया।

सुरेखा जाने कितनी ही देर तक फोन हाथ में लिये – हेलो – हेलो करती रही –आँखों से अश्रुधारा वेग पूर्वक बह निकले ।

" क्या हुआ – क्या हुआ ?"– माँ आश्चर्यमिश्रित स्वर में बोली।

सुरेखा थोड़ी देर तक रोती रही फिर अटक-अटक कर पूरी बात बतायी।

घर में जैसे कोहराम मच गया हो – अरविंद और उसके पूरे खानदान को कोसा जाने लगा – गालियां दी गयी – भिखमंगो के परिवार में बेटी ब्याह दी गयी – जैसी बातें भी कही गयी।

क्रोध जब कम हुआ तो मशवरा करने की बारी आयी।

बारह हजार रुपये – घनश्याम जी के लिये तीन माह के वेतन के बराबर थे – सहज व्यवस्था करना सम्भव नहीं था पर असम्भव भी नहीं था। 

तीन दिन बाद – कुछ बैंक से निकाल कर – कुछ मित्रों से उधार लेकर वे बारह हज़ार रुपये इकट्ठा किये और पीड़ित मन से बेटी को लेकर समधियाने पहुँचे।

अरविंद के माता-पिता को इस संदर्भ में कुछ भी मालूम नहीं था। वे तो सोच रहें थे कि सुरेखा के माता-पिता का मन कर आया होगा कि बेटी को कुछ दिन पास रखें – इसलियें , अरविंद सुरेखा को मायके छोड़ कर अकेला लौट आया।

अरविंद से जबाबतलबी की गई।

" मैंने कौन सा दहेज़ माँगा है – उधार चाहियें था – जैसे ही मेरे पास पैसे जमा हो जायेंगे मैं वापस कर दूँगा।"– अरविंद छूटते ही बोला ।

घनश्याम जी चुपचाप सुरेखा के हाथ में रकम दिये फिर दामाद से कोई सवाल-जबाब किये बिना – अपने बड़े भाई साहब के घर चले गये।

अंत तक वे समझ नहीं पाये थे कि रुपये की मांग के पीछे समधी-समधन की भी कोई इच्छा थी या नहीं थी ?

तीन साल गुजर गये।

न रकम वापस आयी न नयी मांग हुई।

घनश्याम जी ने फिर भी शुक्र मनाया – समझ लिया कि दहेज़ में कोई कमी रह गयी होगी जो उस बारह हजार से पूरी की गयी।

तभी एक दिन पता चला कि अरविंद जिस कॉटन मिल में काम करता था वह बंद हो गयी है।

कर्मचारियों को एक निश्चित रकम सौंप कर अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी गयी थी।

सुरेखा इस दरम्यान एक बच्चें की माँ बन चुकी थी और पुनः गर्भ से थी।

अरविंद एक दिन पत्नी और बच्चें के साथ मोटरसायकल से ससुराल आया और प्रीतमपुर जो महूँ से कुछ ही किलोमीटर दूर था – नयी नोकरी की तलाश में भटकने लगा।

लगभग बीस दिन तक भटकने के बाद एक दिन अरविंद ने कहा कि –" कहीं ढंग की नोकरी नहीं मिल रही है – सोच रहा हूँ कि नोकरी ढूंढने में समय बर्बाद करने के बजाए – अपना खुद का कोई कारोबार शुरू करुँ – अगर पचास हज़ार की मदद मिल जाए तो मैं खुद का काम शुरू कर सकता हूँ।"

पिछली रकम तो वापस हुई नहीं और पचास हज़ार फिर से ---!

मानों , अरबिंद के मुँह से बोल नहीं फूटे हो – बम का गोला दगा हो। 

सास एकदम से बोल पड़ी – " जमाई राजा , वो बारह हजार ही बड़ी मुश्किल से चुकाये है हमनें – और आपकी साली की शादी में भी खूब खर्च हुआ है हमारा – इस बार हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पायेंगे।"

दो  टूक जबाब सुन कर अरविंद कुछ नहीं बोला ।

सुरेखा अरविंद के प्रति आशंकित थी कहीं इस बार फिर ----!

उस शाम अरविंद ने कुछ नहीं किया – चुपचाप खाना खाया –खामोशी से रात गुजारी – और अगली सुबह   – " जाता हूँ किसी और जगह काम देखने ।– कह कर अच्छे से तैयार हुआ – नाश्ता किया और अपना बॉयोडाटा की फाइल वाला बैग लेकर बाइक से चला गया ।

उस रोज वह वापस नहीं लौटा – रात हो गयी और जब वह वापस नहीं लौटा तो सुरेखा ने ससुराल के पड़ोस में फोन किया – वहाँ से पता चला कि अरविंद सनावद भी नहीं लौटा है।

आखिर गया तो कहाँ ?

दो दिन गुज़र गये – मन में तरह-तरह की शंका उत्पन्न हो रही थी – थाने पर दरयाफ्त की गयी – कहीं एक्सीडेंट बगैरह तो नहीं हो गया है ?  पर, कुछ पता नहीं चला।

पाँचवे दिन अरविंद बिना किसी पूर्व सूचना के मैले-कुचैले हालात में महूँ पहुँचा। बिना किसी से कोई बात चीत किये सीधे बाथरूम में घुस गया। 

नहा-धो कर बाहर निकला।

नाश्तें के दौरान बताया कि इन पाँच दिनों में वह इंदौर उज्जैन धार में नोकरी की तलाश में खूब भटका है – कहीं भी–कैसा भी – काम नहीं मिला है इसलियें एक दोस्त के साथ ग्वालियर काम की तलाश में जा रहा है। बाइक वह इंदौर में दोस्त के घर छोड़ देगा और अपना कपडों वाला बैग लेकर वह घर से निकल गया।

सुरेखा भारी मन से अरविंद को जाने दी थी।

पिछले पाँच दिनों में उसकी आँखों ने अविरल आँसू बहाये थे।

आजीविका का प्रश्न न होता तो वह अरविंद को अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देती – अब तो मायके में रहना भी उसे कठिन और अपमानजनक लगने लगा था।

माता - पिता उससे कुछ कहते तो नहीं थे – पर माता-पिता की आँखों में छायी उदासी स्पष्टगोचर होने लगी थी।

अरविंद को गये तीन ही दिन हुए थे कि सुरेखा को उसके ताऊ से पता चला कि अरविंद तो पहले दिन ही सनावद आ गया था – यानी ग्वालियर जाने की बात झूठी थी।

सुरेखा जैसे आसमान से गिरी हो।

घर में कोहराम मचना ही था – मचा।

घनश्याम जी अगली सुबह सुरेखा और बच्चें को लेकर – सनावद रेलवे क्वाटर में रह रहे अपने बड़े भाई के घर पहुँचे।

बड़े भाई को आरम्भ से एक-एक बात बतायी।

पुरी बात सुनकर बड़े भाई – मोहन जी – ने निःश्वास भर कर कहा – " सारी गलती तुम लोगों की है।"

" क्या मतलब !

" तुम लोगों ने , बच्ची की शादी करने के बाद भी उसके जीवन पर अपना नियंत्रण चाहा। ये तो नादान है – कमअक्ल-नासमझ है – इसे घर-गृहस्ती के बारे में क्या अनुभव ! पर तुम्हें और तुम्हारी पत्नी को तो समझदारी दिखलानी चाहियें थी – क्यों बेटी के ससुराल की कमियां जानने के लिये उत्सुक रहती थी ? – कौन-सा घर है जहाँ सबकुछ ठीक-ठाक है – हंड्रेड परसेंट परफेक्ट है – कैंची खराब है – प्रेस खराब है– गैस चूल्हा खराब है – प्रेशर-कुकर खराब है – मिक्सर-ग्राइंडर खराब है – तो तुम लोगों ने बाज़ार से खरीद दिया – अब उस लड़के का भाग्य खराब है – उसका समय खराब है – तो नया भाग्य –नया समय खरीद दो।" 

मोहन जी पल भर के लिये रुके फिर बोले–” घनश्याम, जब उन्हें तुम्हारी सौगातों की ज़रूरत नहीं थी तब तुम जबरन वे सौगातें उन पर थोपते रहें – अब उसे वाकई मदद की ज़रूरत है तब तुम अपनी पीठ दिखा रहे हो – मदद करने से इंकार कर रहे हो।

" मैं क्या करूँ ? मेरे पास इतना पैसा कहाँ है ? 

" मैं ये नहीं कहता कि तुम कर्ज़ लेकर मदद करने की कोशिश करो–चाहों तो भी नहीं कर सकते – पर सच ये है कि उनके दाढ़ में लहूं तुमनें ही चखाया है – झूठी उम्मीदें तुम्हीं ने जगायी है – तुमनें बेटी के कहने पर वे छोटी-बड़ी चीजें न खरीदी होती तो लड़के को तुमसे कोई उम्मीद ही नहीं होती – असल में लड़का तुम्हें कारू का खजाना समझ लिया है और तुम्हारी बेटी भी जमीनी हकीकत से दूर है – ये बच्चें किसी चीज़ की फरमाइश करते समय भूल जाते है कि माता-पिता कैसे घर-परिवार मैनेज करते है–कैसे चीजें जुटाते है।"

" फिर क्या करें ?"

" अब सबके लिये यही अच्छा है कि सुरेखा स्वयं बच्चें के साथ जायें और खुद सब कुछ मेनेज़ करे। तुम पहली गाड़ी से वापस महूँ लौट जाओं – अगर मन नहीं मानें तो यहीं मेरे घर में रहो – अभी सुरेखा के साथ उसके ससुराल में जानें कि ज़रूरत नहीं है। बल्कि उन्हें तो पता भी नहीं चलना चाहियें कि तुम सनावद आये थे।"

" पता नहीं , वे लोग सुरेखा के साथ कैसा व्यवहार करेंगें ?"

" बेवकूफ मत बनों – क्या कभी सुरेखा ने सास-ससुर के बारे में ये कहा कि वे सुरेखा के साथ दुर्व्यवहार करते है ! – घनश्याम, मैं निजी रूप से अरविंद के माता-पिता को जानता हूँ – वे बहुत ही नेक लोग है – अगर अरविंद ने बेवकूफी की भी है तो इसमें उसके माता-पिता का क्या दोष ? – अगर वे लालची लोग होते तो मैं खुद रिश्ते के लिये इंकार कर देता।"

घनश्याम जी प्रतिवाद करना चाहतें थे पर बड़े भाई की बातों की अवहेलना न कर सकें।

मोहन जी ने कमरें में सुरेखा और अपनी पत्नी को बुलाया – कुछ सवाल-जबाब किये – फिर कुछ बातें समझायी – और एक ऑटो बुलवाकर सुरेखा को ससुराल के लिये रवाना कर दिया गया।

सुरेखा के लिये दरवाज़ा उसकी सास ने खोला था ।

पुत्र-बधू एवम पोते को देखकर वह चौकी – बोली –" कैसे आयी ?"

" आयी तो ट्रेन से ही थी – स्टेशन के बाहर ताई जी मिल गयीं थी – उन्होंने जिद की तो थोड़ी देर के लिये उनके घर जाना ही पड़ा।"

" संयोगवश अरविंद उस समय घर पर ही था।" – सुरेखा से नजरें मिला पाने का ताव न ला सका – नजरें चुराता हुआ अपने बच्चें के साथ खेलने लगा।

सास के व्यवहार से यही ज्ञात हुआ कि वह सारे मसले से अनभिज्ञ है। सुरेखा को लगा कि अच्छा ही हुआ कि ताऊ जी की बात मान कर पिता साथ नहीं आये थे – भेद खुलता तो अरविंद या तो शर्मिंदा होता या भड़क कर कोई और बेवकूफी करता।

रात हुई , अरविंद बड़ी हिम्मत कर कमरें में गया।

सुरेखा को इसी पल का इंतज़ार था।

बेटा सो चुका था।

" एक बात पूछू ?" – सुरेखा के मुँह से निकला ।

" सॉरी।"

" तुमसे सॉरी नहीं सुनना मुझें – मैं तो एक बात जानना चाहती हूँ कि मैं तुम्हारी कौन हूँ ? – दिल की रानी तो हो ही नहीं सकती – अगर होती तो तुम्हारें दिल में रहती – अर्धांगिनी भी नहीं समझतें – अगर समझ रहें होते तो मुझें छोड़ कर भागते नहीं – दासी समझतें तो चरणों में जगह देतें।"

" कह तो रहा हूँ न कि –  सॉरी। "

" मैं भी कह रही हूँ कि मुझें तुम्हारी सॉरी नहीं चाहियें – कहते है कि पति-पत्नी का जीवन सांझे का होता है – सुख हो – दुख हो – खुशी हो – विषाद हो – दोनों को बराबर-बराबर झेलना पड़ता है – कभी सोचा है कि मेरे पेट में जो बच्चा पल रहा है उस पर तब क्या बीतती होगी जब मैं ज़ार-ज़ार रोती हूँ – तुम मुझ पर ही नहीं इस बच्चें पर भी जुल्म कर रहें हो – जो अभी जन्मा भी नहीं है।"

" मेरी नोकरी छूट गयी है।" – अरविंद कातर स्वर में बोला।

बहुत से लोग ऐसे भी है जिनकी नोकरी कभी लगी ही नहीं।"

" तुम कहना क्या चाहती हो ?"

" मैं सोच रहीं हूँ कि –  अभी तीन महीनें ही तो हुए है – क्यों न --- इस गर्भ को ----।"

" नहीं।" – मन्तव्य समझकर अरविंद के मुँह से चीख-सी निकल गयी।

सुरेखा के होठों पर एक फीकी-सी मुस्कान रेंग कर रह गयी – " माई डियर हब्बी, अपने बच्चें के बारे में सिर्फ बुरा सुन कर कितनी पीड़ा हुई – उस बच्चें के खिलाफ जिसकी तुमनें शक्ल भी नहीं देखी है – जिसे दुनियां में आना भी बाकी है – फिर सोचो, मेरे पापा को कैसा लगता होगा जब मैं खून के आँसू रोती हूँ।"

" सुरेखा प्लीज़, मुझें जूते मार लो पर जलील मत करो – प्लीज़।

" वादा करो कि मर्द बनोंगे – हर दुश्वारी का सामना करोगे – पर भगोड़े की तरह भागोगे नहीं – कभी पलायन नहीं करोगे।"

नही करूँगा – नहीं करूँगा – नहीं करूँगा – मैं ठेले पर सब्ज़ी बेच लूँगा – चाय की टपरी खोल दूँगा पर तुमसे दूर नहीं जाऊँगा।"

" कुछ भी करो , अब मैं भी दो पैसे कमाने की जुगत करूँगी – बस दो-तीन साल की बात और है – छोटा बच्चा भी जब दूध छोड़ देगा या देगी – तब मैं भी तुम्हारें कंधे से कंधा मिला कर तुम्हारा साथ दूँगी – अब रहीं बात पूँजी की ! – तो मेरे गहने प्रस्तुत है।

" अब फिर जूते मार रही हो तुम !"

 नहीं, हर्गिज नहीं – सिर्फ रास्ता बता रहीं हूँ मैं– हम अभी भी बिल्कुल हेल्पलेस नहीं हुए है।"

अरविंद ने सुरेखा को ज़ज़्बात के आवेग में आलिंगन में भर लिया।

दोनों की आँखे आँसुओं से सराबोर थी।

गर्भ में पल रहे अभिमन्यु का तो पता नहीं – पर उसका बड़ा भाई पलँग पर गहरी नींद सो रहा था।

लेखक: अरुण कुमार अविनाश

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रिश्तों की कहानी, Relationship Story In Hindi, riston pa kahani hindi mein

mammy vahaan to pressure cooker bhi kharab hai – kai baar ring nikaal kar set karo – tab ja kar bhaanp nikalana band hota hai." 

" achchha ! –aur haan, seeti to bajata hi nahin ."– matar chheelate hue surekha ne apani maa se shikaayat ki. 

tu pahali baar sasuraal se maayake aayi hai – chalo shaam ko ek naya – tumhaari pasand ka – pressure cooker dilava deti hoon ." 

– maan snehalata sneh se boli. 

surekha khush ho gayi. shaam hui – maan aur chhoti bahan ke saath surekha baazaar gayi aur apani pasand se khud ke kapade – pati ke liye shart-pent ke kapade aur ek achchhe braand ka pressure cooker khareed laayi. 

surekha ke pita ghanshyam jee mahoon railway station par triteey shreni ke karmachaari the – usaka vivaah mahoon se lagabhag saath kilometer door sanavad nagar mein hua tha. 

yaatayaat ka saadhan sugam tha. railway ke alaava sadak maarg se bhi donon nagar juden hue the. surekha ka pati aravind sanaavad mein hi ek soot mil mein kaam karata tha. 

sasur kisi co-operative bank. se retire ho chuken the. donon parivaar madhyamavargiy tha – dhan ki prachurata nahin thi par ghar mein abhaav bhi nahin tha. 

surekha ke tau sanaavad steshan par kaaryarat the – unheen ke prayaason ke kaaran rishten ki baat chali thi aur vivah sampann hua tha. 

agale din surekha pati ke saath sasuraal lauteen . dil balliyon uchhal raha tha – maa se mile upahaar use goravaankit kar rahen the. saas pressure cooker ke dabbe ko dekh kar poochh baithi – 

" ye kyon khareed laayi ?" " hamanen khareeda nahin mammy jee – meri mammy ne diya hai ."– kahate samay surekha ke svar mein garv ka bhaav tha. 

anubhavi saas jaise maazara samajh gayi ho – boli – " ise abhi nikaalana nahin – arvind se kah kar cooker sudharava doongi – agar phir bhi cooker se santushti nahin mile – tabhi naya cooker nikaalana." 

usi shaam pressure cooker ko ek bartan dukaan par bhej kar sudharava liya gaya. ab puraane kukar se pressure leek nahin kar raha tha aur vah yada-kada seeti bhi baja raha tha. 

teen maheenen baad – surekha pati ke saath phir maayake aayi – mammy ne haal-chaal poochha – baaton hi baaton mein maa ne poochh liya ki – " kisi cheez ki zarurat ho to bataana . aur sab to theek hai mammy par vahaan ka gais choolha itana kam fleme deta hai ki chai banaane mein hi paseena chhoot jaata hai – use sudharava kar bhi dekha par koi fayada nahin – aath -das din tak fleme theek rahata hai phir vaisa ka vaisa hi – 

mammy, military canteen se chulha mil sakata ho to dilavao na – 

kenteen mein sasta mil jaata hai. ghanashyaam jee ke ek mitr – jo sena mein ek achchhen pad par kaaryarat the

 – se nivedan kar ghanashyaam jee ne – ek gas stove surekha ke liye mangava diya. surekha ne mulay chukaana chaaha par ghanashyaam jee ne mulay lene se mana kar diya. 

samajhana paapa ki taraf se gift hai ."– kah kar unhonne taal diya. 

is baar fir surekha garv se mastak uncha kar sasuraal pahunchi. saas ne darawaza khola tha – saas ki najar gas stove par padi to saas ke poochhane se pahale hi surekha bol padi –" mammy jee, apane choolhe se pareshaan ho gayi hoon – isaliye mahoon ke militree kenteen se – mammi se kah kar – chulha mangwayi hoon – 

main paise de rahi thi par paapa ne dene nahin diya." is baar saas kuchh nahin boli. shaam ko kaam se lautane ke baad khud arvind ne naya stove kichan mein lagaaya – us shaam ka khaana – naye stove par banaaya gaya – saath hi aaj naya pressure cooker –jo taand par rakha tha– utaara gaya – 

phir naye pressure cooker ka udghatan naye gas stove par – kheer bana kar kiya gaya. 

baad ke dinon mein sthiti ye thi ki surekha jab kabhi maayake jaati thi – apani maa ke saamane shikaayaton ka pitaara khol kar rakh deti thi – 

jara-jara si kamiyaan bhi badha-chadha kar bataati thi – maa bhee un kamiyon ko ras le-le kar sunati thi – 

chunki ve sab cheejen gharelu upayog se sambandhit hoti thi – jyaada mahangi bhi nahin hoti thi – 

isaliye maa khud baajar se la deti thi ya pita se mangava deti thi. 

kainchi – Mixer Grinder – Dinner Set– jaise kai cheejen vah maa se sanaavad le kar aayi. 

ab saas bhi kuchh nahin kahati thi – unhen bhi lagata tha ki kuchh la hi rahi hai – dene to ja nahin rahi. 

sampann maan-baap ki beti hai – maanye betiyon ko upahaar deti hi hai. 

unheen dinon arvind ko ek second-hand bike pasand aa gayi. keemat lagabhag chalees hajaar rupaye tay thaharaya gaya. 

aravind ke paas maatr bees hazaar rupye the – kuchh paapa se – kuchh doston se lekar khareed loonga – 

soch kar arvind ne baike ke liye das hajar rupaye bayaana de diya aur saat din ke andar poori rakam dekar baike le jaoonga ka – vaada kar aaya. 

ghar aaya to pata chala ki pita adhikatam aath hazaar rupaye ki madad kar sakate hai – shesh baarah hajaar ke liye vah idhar-udhar bhataka – 

mitron se fariyaad kiya par kaheen daal nahin gali. 

antim vikalp ke taur par vah daanveer sasur ko yaad kiya – agale hi din navdampatti mahoon pahunch gaye. 

ghanashyaam jee ke saamane aane ka prayojan bataaya gaya to arvind aur surekha – donon ka bhram toota. 

ghanashyaam jee ne paise juta paane mein asamarthata prakat ki, bole – " hajar – do hajar kee vyavastha to kar sakata hoon par baarah hajar ki vyavastha mere liye mushkil hogi. 

surekha ka dil udaas ho gaya – vaheen arvind ko bayaane mein diye das hazaar rupaye dubate hue nazar aayen. 

beti-daamaad aaye the isaliye uttam bhog ka prabandh kiya jaane laga – par arvind ka man sasuraal mein nahin laga – " 

indaur se hokar lautata hoon ."– kah kar vah vahaan se nikal gaya. mahoon – indaur mein lagabhag pachchees kilomeetar ki duri thi – " 

jaldi lautana ." – kah kar surekha ne use jaane diya. dopahar ho gayi – phir shaam dhal gayi – par arvind indaur se vaapas nahin lauta tha – 

jabaki, purv nirdhaarit kaaryakram ke mutaabik usi shaam unhen sanaavad lautana tha – 

surekha baar-baar ghadi dekhati – usaka man vichalit hone laga tha – man mein tarah-tarah ke khyaal umad rahen the. 

koi anahoni na ho gayi ho – soch kar usaki aankhon se aansoo nikal pade . beti ke aagaman se maa ka ullaasit man ab malin hone laga tha – dimaag mein ek hi baat aayi ki paise ke kaaran jamai raaja naaraaz to nahin ho gaya hai ! 

beti ko lekar ek PCO mein pahunchi aur arvind ke pados ke ek ghar mein jahaan P&T telephone connection laga tha – phone lagaaya gaya. 

phone sunane arvind hi aaya tha. phone par arvind ki aawaz sunakar surekha phaphak padi – main yahaan aapaki pratiksha kar rahi hoon aur aap sanaavad pahunch gaye !

"– surekha badi mushkil se bol paayi. " kya karata mahoon mein ruk kar ? indaur dost ke paas gaya tha paise ke jugaad mein – vahaan bhi inkaar suna to sanaavad laut aaya – 

baike vaale se bayaana lautaane ko bolunga – agar lauta diya to theek hai nahin to das hajar rupaye ko ram - ram ." 

" main kaise aaun ? " " marzi teri – jaise aana ho aana – na marji ho to mat aana .

"– aravind ka rushth svar. bijali see giri surekha ke upar – kai palon tak apane kaanon par yakeen nahin hua –" 

ya- ye-- kya bol rahe ho !" " vahi jo sun rahi ho ." – kah kar arvind ne phone rakh diya. surekha jaane kitani hee der tak phon haath mein liye – hello – hello karati rahi –aankhon se ashrudhaara veg purvak bah nikale . 

" kya hua – kya hua ?"– maa aashcharyamishrit svar mein boli. surekha thodi der tak roti rahi phir atak-atak kar poori baat bataayi. 

ghar mein jaise koharaam mach gaya ho – arvind aur usake poore khaanadaan ko kosa jaane laga – gaaliyaan di gayi – 

bhikhamango ke parivar mein beti byah di gayi – 

jaisi baaten bhi kahi gayi. krodh jab kam hua to mashvara karane ki baari aayi. 

baarah hajaar rupaye – ghanshyaam jee ke liye teen maah ke vetan ke baraabar the – 

sahaj vyavastha karana sambhav nahin tha par asambhav bhi nahin tha. teen din baad – kuchh bank se nikaal kar – kuchh mitron se udhaar lekar ve baarah hajar rupaye ikattha kiye aur peedit man se beti ko lekar samadhiyaane pahunche. 

arvind ke maata-pita ko is sandarbh mein kuchh bhi maaloom nahin tha. ve to soch rahen the ki surekha ke maata-pita ka man kar aaya hoga ki beti ko kuchh din paas rakhen – isaliyen , 

arvind surekha ko maayake chhod kar akela laut aaya. aravind se jababatalabi ki gai. 

" mainne kaun sa dahej maanga hai – udhaar chaahiyen tha – jaise hi mere paas paise jama ho jaayenge main vaapas kar dunga.

"– arvind chhutate hi bola . ghanashyaam jee chupachaap surekha ke haath mein rakam diye phir daamaad se koi savaal-jabaab kiye bina – apane bade bhai saahab ke ghar chale gaye. 

ant tak ve samajh nahin paaye the ki rupaye ki maang ke peechhe samadhi-samadhan ki bhi koi ichchha thi ya nahin thi ? 

teen saal gujar gaye. na rakam vaapas aayi na nayi maang hui. ghanashyaam jee ne phir bhi shukr manaaya – 

samajh liya ki dahej mein koi kami rah gayi hogi jo us baarah hajar se puri ki gayi. 

tabhi ek din pata chala ki arvind jis cotton mill mein kaam karata tha vah band ho gayi hai. 

karmchaariyon ko ek nishchit rakam saump kar anivaary sevaanivrtti de di gayi thi. 

surekha is daramyaan ek bachchen ki maa ban chuki thi aur punah garbh se thi. 

arvind ek din patni aur bachchen ke saath motorcycle se sasuraal aaya aur preetamapur jo mahoon se kuchh hi kilomeetar dur tha – 

nayi nokari ki talaash mein bhatakane laga. lagabhag bees din tak bhatakane ke baad ek din arvind ne kaha ki –

" kaheen dhang ki nokari nahin mil rahi hai – soch raha hoon ki nokari dhoondhane mein samay barbaad karane ke bajaye – apana khud ka koi kaarobaar shuru karun – 

agar pachaas hajar ki madad mil jaye to main khud ka kaam shuru kar sakata hoon.

" pichhali rakam to vaapas hui nahin aur pachaas hazaar phir se ---! 

maanon , arvind ke munh se bol nahin foote ho – bam ka gola daga ho. 

saas ekadam se bol padi – " jamai raaja , vo baarah hajaar hi badi mushkil se chukaaye hai hamanen – 

aur aapaki saali ki shaadi mein bhi khoob kharch hua hai hamaara – 

is baar ham chaah kar bhi kuchh nahin kar paayenge." do took jabaab sun kar arvind kuchh nahin bola . 

surekha arvind ke prati aashankit thi kaheen is baar phir ----! 

us shaam arvind ne kuchh nahin kiya – chupachaap khaana khaaya –khaamoshi se raat gujaari – aur agali subah – " 

jaata hoon kisi aur jagah kaam dekhane .– kah kar achchhe se taiyaar hua – 

naashta kiya aur apana baiodata ki file vaala bag lekar baike se chala gaya . 

us roj vah vaapas nahin lauta – raat ho gayi aur jab vah vaapas nahin lauta to surekha ne sasuraal ke pados mein phone kiya – 

vahaan se pata chala ki arvind sanaavad bhi nahin lauta hai. aakhir gaya to kahaan ? 

do din guzar gaye – man mein tarah-tarah ki shanka utpann ho rahi thi – 

thaane par darayaft ki gayi – 

kaheen accident bagairah to nahin ho gaya hai ? 

par, kuchh pata nahin chala. panchave din arvind bina kisi purv suchana ke maile-kuchaile haalaat mein mahoon pahuncha. 

bina kisi se koi baat cheet kiye seedhe baatharoom mein ghus gaya. 

naha-dho kar baahar nikala. naashten ke dauraan bataaya ki in paanch dinon mein vah indaur ujjain dhaar mein nokari ki talaash mein khoob bhataka hai – 

kaheen bhi–kaisa bhi – kaam nahin mila hai isaliye ek dost ke saath gwaliyar kaam ki talaash mein ja raha hai. 

baike vah indaur mein dost ke ghar chhod dega aur apana kapadon vaala bag lekar vah ghar se nikal gaya. 

surekha bhaari man se arvind ko jaane di thi. 

pichhale paanch dinon mein usaki aankhon ne aviral aansoo bahaaye the. 

aajeevika ka prashn na hota to vah arvind ko apani aankhon se ojhal nahin hone deti – ab to maayake mein rahana bhi use kathin aur apamanjanak lagane laga tha. 

maata - pita usase kuchh kahate to nahin the – par maata-pita ki aankhon mein chhaayi udaasi spashtagochar hone lagi thi. 

arvind ko gaye teen hi din hue the ki surekha ko usake tau se pata chala ki arvind to pahale din hi sanaavad aa gaya tha – 

yaani gvaaliyar jaane ki baat jhuthi thi. surekha jaise aasamaan se giri ho. 

ghar mein koharaam machana hi tha – macha. ghanashyaam ji agali subah surekha aur bachchen ko lekar – sanaavad Railway Quarter mein rah rahe apane bade bhai ke ghar pahunche. bade bhai ko aarambh se ek- ek baat bataayi. 

puri baat sunakar bade bhai – mohan jee – ne nihshvaas bhar kar kaha – 

" saari galati tum logon ki hai." 

" kya matalab ! " tum logon ne , bachchi ki shaadi karane ke baad bhi usake jeevan par apana niyantran chaaha. 

ye to naadaan hai – kamakl-naasamajh hai – ise ghar-grhasti ke baare mein kya anubhav ! 

par tumhen aur tumhaari patni ko to samajhadaari dikhalaani chaahiye thi –

 kyon beti ke sasural ki kamiyaan jaanane ke liye utsuk rahati thi ? 

– kaun-sa ghar hai jahaan sabakuchh theek-thaak hai – 

Hundred percent parfect hai – kainchi kharaab hai – pres kharaab hai– gais choolha kharaab hai 

– preshar-kukar kharaab hai – miksar-graindar kharaab hai – to tum logon ne bajar se khareed diya 

– ab us ladake ka bhaagy kharaab hai – usaka samay kharaab hai – to naya bhaagy –naya samay khareed do.

" mohan jee pal bhar ke liye ruke phir bole–” ghanashyaam, jab unhen tumhaari saugaaton ki zaroorat nahin thi tab tum jabaran ve saugaaten un par thopate rahen

 – ab use baki madad ki zarurat hai tab tum apanee peeth dikha rahe ho 

– madad karane se inkaar kar rahe ho.

 " main kya karoon ? mere paas itana paisa kahaan hai ? 

" main ye nahin kahata ki tum karz lekar madad karane ki koshish karo–chaahon to bhi nahin kar sakate 

– par sach ye hai ki unake daant mein lahoon tumanen hi chakhaaya hai 

– jhoothi ummeeden tumheen ne jagaayi hai 

– tumanen beti ke kahane par ve chhoti-badi cheejen na khareedi hoti to ladake ko tumase koi ummeed hi nahin hoti 

– asal mein ladaka tumhen kaaru ka khajaana samajh liya hai aur tumhaari beti bhi jameeni hakeeqat se door hai 

– ye bachchen kisi cheez ki faramaish karate samay bhool jaate hai ki 

maata-pita kaise ghar-parivaar manage karate hai–kaise cheejen jutaate hai.

" " phir kya karen ?" 

" ab sabake liye yahi achchha hai ki surekha svayam bachche ke saath jaaye aur khud sab kuchh manage kare. 

tum pahali gaadi se vaapas mahoon laut jao – agar man nahin maanen to yaheen mere ghar mein raho 

– abhee surekha ke saath usake sasuraal mein jaanen ki zaroorat nahin hai. balki unhen to pata bhi nahin chalana chaahiye ki tum sanaavad aaye the." 

" pata nahin , ve log surekha ke saath kaisa vyavahaar karengen ?"

 " bevkoof mat banon – kya kabhi surekha ne saas-sasur ke baare mein ye kaha ki ve surekha ke saath durvyavahaar karate hai !

 – ghanashyaam, main niji roop se arvind ke maata-pita ko jaanata hoon – ve bahut hi nek log hai 

– agar arvind ne bevakufi ki bhi hai to isamen usake maata-pita ka kya dosh ? 

– agar ve laalachi log hote to main khud rishte ke liye inkaar kar deta." ghanashyaam jee prativaad karana chaahate the par bade bhai ki baaton ki avahelana na kar saken. 

mohan jee ne kamaren mein surekha aur apani patni ko bulaaya – kuchh savaal-jabaab kiye – phir kuchh baaten samajhaayi – aur ek auto bulavaakar surekha ko sasuraal ke liye rawana kar diya gaya. surekha ke liye darwaza usaki saas ne khola tha . putr-badhu evam pote ko dekhakar vah chauki – boli –" kaise aayi ?" 

" aayee to train se hi thi – station ke baahar tai jee mil gayi thi – unhonne jid ki to thodi der ke liye unake ghar jaana hi pada." 

" sanyogavash arvind us samay ghar par hi tha." – surekha se najaren mila paane ka taav na la saka 

– najaren churaata hua apane bachche ke saath khelane laga. saas ke vyavahaar se yahi gyaat hua ki vah saare masale se anabhigy hai. 

surekha ko laga ki achchha hi hua ki tau jee ki baat maan kar pita saath nahin aaye the – bhed khulata to arvind ya to sharminda hota ya bhadak kar koi aur bevakoofi karata. 

raat hui , arvind badi himmat kar kamare mein gaya. surekha ko isi pal ka intajar tha. 

beta so chuka tha. " ek baat puchhun ?" 

– surekha ke munh se nikala . " sorry." " tumase sorry nahin sunana mujhe – main to ek baat jaanana chaahati hoon ki main tumhaari kaun hoon ? 

– dil ki raani to ho hi nahin sakati –

 agar hoti to tumhaare dil mein rahati – ardhaangini bhi nahin samajhate – agar samajh rahe hote to mujhe chhod kar bhaagate nahin 

– daasi samajhate to charanon mein jagah dete." 

" kah to raha hoon na ki – sorry. " 

" main bhi kah rahi hoon ki mujhe tumhaari sorry nahin chaahiye 

– kahate hai ki pati-patni ka jeevan saanjhe ka hota hai – sukh ho – dukh ho – khushi ho 

– vishaad ho – donon ko baraabar-baraabar jhelana padata hai – kabhi socha hai ki mere pet mein jo bachcha pal raha hai us par tab kya beetati hogi jab main zaar-zaar roti hoon 

– tum mujh par hi nahin is bachche par bhee julm kar rahen ho – jo abhi janma bhi nahin hai." 

" meri nokari chhut gayi hai.

" – arvind kaatar svar mein bola. bahut se log aise bhi hai jinaki nokari kabhi lagi hi nahin." 

" tum kahana kya chaahati ho ?" " main soch rahi hoon ki – abhi teen maheene hi to hue hai – kyon na --- is garbh ko ----." 

" nahin." – mantavy samajhakar arvind ke munh se cheekh-si nikal gayi. surekha ke hothon par ek feeki-see muskaan reng kar rah gayi – " mai diyar habbi, apane bachchen ke baare mein sirph bura sun kar kitani peeda hui – 

us bachchen ke khilaf jisaki tumanen shakl bhi nahin dekhi hai – jise duniyan mein aana bhi baaki hai 

– phir socho, mere paapa ko kaisa lagata hoga jab main khoon ke aansu roti hoon." " surekha pleese, mujhen joote maar lo par jaleel mat karo – pleese. 

" vaada karo ki mard banonge – har dushvaari ka saamana karoge – par bhagode ki tarah bhaagoge nahin – kabhi palaayan nahin karoge.

" nahi karoonga – nahin karoonga – nahin karoonga 

– main thele par sabji bech lunga – chai ki tapari khol dunga par tumase dur nahin jaunga." 

" kuchh bhi karo , ab main bhi do paise kamaane ki jugat karungi – bas do-teen saal ki baat aur hai 

– chhota bachcha bhi jab doodh chhod dega ya degi – tab main bhi tumhaare kandhe se kandha mila kar tumhaara saath doongi 

– ab rahi baat punji ki ! – to mere gahane prastut hai. 

" ab phir jute maar rahi ho tum !

" nahin, hargij nahin 

– sirf rasta bata rahi hoon main– ham abhi bhi bilkul helples nahin hue hai.

" arvind ne surekha ko zazbaat ke aaveg mein aalingan mein bhar liya. 

donon ki aankhe aansuon se saraabor thi. garbh mein pal rahe abhimanyu ka to pata nahin 

– par usaka bada bhai palang par gahari neend so raha tha. 

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